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चक्रधर समारोह पर भाजपा राज का डंडा !

सत्यानाशी
सत्यानाशी
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रायगढ़ को छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है। आजादी के पहले रायगढ़ एक स्वतन्त्र रियासत था, जहां सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों का फैलाव बड़े पैमाने पर था। प्रसिद्द संगीतज्ञ कुमार गन्धर्व और हिन्दी के पहले छायावादी कवि मधुकर पांडेय रायगढ़ से ही थे।

सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रयासों से जब रियासतों के भारत में विलीनीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई तो रायगढ़ के राजा चक्रधर विलीनीकरण के सहमतिपत्र पर हस्ताक्षर करने वाले पहले राजा थे। राजा चक्रधर एक अच्छे तबला वादक थे और संगीत तथा नृत्य में निपुण थे| उनके प्रयासों और प्रोत्साहन के चलते यहाँ संगीत तथा नृत्य की नई शैली विकसित हुई थी।

आजादी पूर्व से ही गणेशोत्सव के समय यहाँ सांस्कृतिक आयोजन की एक समृद्ध परंपरा विकसित हुई थी,जिसमें रियासत की जनता की मुखर भागीदारी होती थी। यह आयोजन एक बड़े मेले का रूप ही ले लेता था। राजा चक्रधर ने इस परंपरा को और आगे ही बढ़ाया था। उनकी याद में “चक्रधर समारोह” के नाम से यहाँ के संस्कृतिकर्मियों तथा कलासाधकों ने वर्ष 1985 से दस दिवसीय सांस्कृतिक उत्सव शुरू किया। इस पूरे उत्सव का आयोजन आम जनता के सहयोग से ही किया गया। चक्रधर समारोह शीघ्र ही राष्ट्रीय महत्त्व के सांस्कृतिक आयोजन के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। इसके जन-महत्व को देखते हुए तब के मध्यप्रदेश शासन ने दस में से दो दिनों के आयोजन का भार अपने कन्धों पर लिया तथा कुशलता पूर्वक इसका निर्वाह भी किया। लेकिन जनसहयोग से आयोजित इस समारोह की रूपरेखा बनाने में शामिल विभिन्न जन-संस्थाओं की भागीदारी को किसी भी प्रकार से प्रतिबंधित करने का प्रयत्न तात्कालीन राज्य शासन ने कभी नहीं किया।

वर्ष 2000 में इस समारोह के राष्ट्रीय महत्त्व को देखते हुये नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य के शासन ने जब दस-दिवसीय आयोजन को शासकीय मान्यता दी, तब किसी ने भी नहीं सोचा था कि शासन की यह पहलकदमी इस आयोजन को संगठित करने में शामिल कला-संस्थाओं की स्वायत्तता पर कुठाराघात करने वाली साबित होगी। शुरू में सब खुश थे कि जब चक्रधर समारोह के आयोजन के लिए आर्थिक सहायता सुनिश्चित हो रही है, तो विभिन्न संस्थाएं और आमजन इस समारोह के रंग रूप को निखारने में और यहाँ की सांस्कृतिक विरासत को और समृद्ध करने में ज्यादा सक्रिय हो सकेंगे। राज्य निर्माण के 5 साल के बाद तक इस समारोह की ख्याति और ज्यादा फ़ैली तथा देश के सांस्कृतिक मानचित्र में छत्तीसगढ़ को स्थापित करने में इससे बड़ी मदद मिली।

लेकिन सरकारी सरंक्षण और उठापटक की राजनीति में संस्कृति का विकास नहीं, विनाश ही होता है। पिछले 5-7 सालों का अनुभव तो यही कहता है। वर्ष 2005 के अंत में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनी तथा 2006 में पहली बार इस समारोह की गरिमा पर हमला हुआ। समारोह को शासकीय मान्यता होने के बावजूद अब तक इसके आयोजन में विभिन्न जन संस्थाओं की भूमिका ही मुख्य होती थी और कलेक्टर इसका पदेन प्रमुख होता था। कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा आमजनता के प्रतिनिधियों और कला प्रेमियों की भागीदारी से ही तैयार की जाती थी। शासन-प्रशासन की भूमिका इसके आयोजन में आने वाली दिक्कतों को खत्म करने और इसके सुचारू संचालन तक ही सीमित थी। इस समारोह में किन्हें आमंत्रित किया जाएगा, कब क्या कार्यक्रम होंगे, आदी इत्यादि सभी कुछ सांस्कृतिक संस्थाएं ही मिलजुलकर तय करती थीं। लेकिन 2006 में पहली बार आयोजन को ही सरकार ने अपने हाथ में लेकर सांस्कृतिक संस्थाओं और आम जन की भागीदारी को खत्म करने का प्रयास किया। जिला प्रशासन इस समारोह का आयोजक बन बैठा तथा आयोजन समिती के रूप में कला की दुनिया से बाहर के राजनीतिक लोगों और अधिकारियों को थोप दिया गया, जो न केवल संकीर्ण मानसिकता से संचालित थे, बल्कि भाजपा के राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ही उद्दत थे| कलाएं धर्मनिरपेक्ष होती हैं, लेकिन भाजपा राज में इस कार्यक्रम की लौकिक संरचना को ही नष्ट करने का प्रयास किया गया। इस प्रयास में, जहां मुशायरे को नियमित कार्यक्रम से निकाल बाहर किया गया, तो कला के नाम पर भाजपा से जुड़े ग्लेमारों को आमंत्रित किया गया। इस प्रकार इस समारोह के भगवाकरण की कोशिशों के चलते इसकी गरिमा का उत्तरोत्तर ह्रास ही हुआ| इसका देशव्यापी विरोध हुआ।

इस वर्ष सितम्बर में 28वां चक्रधर समारोह का आयोजन होना है। जिला प्रशासन ने आयोजक के रूप में एकतरफा तरीके से समारोह को दस दिन से घटाकर सात दिवसीय करने का निर्णय लिया है। समारोह की तैय्यारी के लिए आयोजित बैठक में जिलाधीश का यह फरमान सामने आया है। इससे संस्कृतिकर्मियों का उत्तेजित होना स्वाभाविक था| वे उत्तेजित हुए और उन्होंने बैठक का बहिष्कार कर दिया। समारोह के आयोजन के दिनों में कटौती को लेकर राजपरिवार भी विरोध कर रहा है। इस कटौती के कारणों के लिए जिला प्रशासन(और राज्य शासन)का एक ही बहाना है-फंड की कमी तथा आयोजन के दिनों में व्यवस्था करना।

शासन-प्रशासन के इस रवैय्ये से बहत से सवाल खड़े होते हैं। किनके खाने पर यह कटौती की जा रही है, राष्ट्रीय महत्त्व के समारोह के लिए फंड में अचानक कमी कैसे हो गयी तथा सांस्कृतिक आयोजन क्या व्यवस्था के लिए चुनौती बनाते जा रहे हैं? सबसे उपर यह सवाल कि भाजपा राज में सरकार की वास्तविक सांस्कृतिक नीति क्या है? या , जिस सांस्कृतिक नीति को सरकार वेब साईट में प्रचारित करती है, क्या उसके वास्तविक क्रियान्वयन में उसकी रत्ती भर भी दिलचस्पी है? ये सवाल महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि हम राजधानी रायपुर में ही देख रहे हैं कि एक साल पहले संस्कृति विभाग के मुक्ताकाशी मंच पर विभिन्न नाट्य संस्थाएं माह में दो बार अपने नाटक प्रस्तुत करती थीं। फंड का रोना रोते हुए इसे बंद कर दिया गया और अब माह में एक बार की घोषित प्रस्तुति भी संभव नहीं होती। पिछले दो माह से इस मंच पर कोई नाटक नहीं खेला गया है और जिस संस्कृति विभाग के लिए मिर्जा मसूद ने नाटक तैयार किया है, उसे अब वे अपने खर्चे से स्वतन्त्र रूप से प्रस्तुत करने के लिए मजबूर हैं। जिस मुक्ताकाशी मंच को कलाप्रेमियों को नि:शुल्क उपलब्ध कराने की घोषणा की गयी थी, उस मंच के उपयोग के लिए अब हजारों रुपया किराया माँगा जा रहा है। मुक्ताकाश से लगी कलावीथिका को कबाद्घर में तब्दील कर दिया गया है। मुक्ताकाशी मंच पर कला की जगह अब फ़िल्मी गीतों की प्रस्तुतियाँ हो रहीं हैं और मनोरंजन कलानुभुती का स्थापन्न हो गया है। कला समारोहों के नाम पर राजनीतिक नेताओं का तामझाम और उनकी अगवानी बढ़ गयी है। साहित्यिक सम्मेलनों के नाम पर 1200 रुपये प्लेट का खाना उड़ाया जा रहा है और विख्यात पंडवानी गायिका रितु वर्मा भूखों मर रही है। भाजपा नेताओं का जो जितना बड़ा पैर चाटु है, वह इस प्रदेश का उतना ही बड़ा संस्कृति कर्मी है। संस्कृतिकर्मी होने के लिए अब लोककर्मी होना जरूरी नहीं रह गया है। वास्तव में यही इस सरकार की संस्कृति नीति है। ब्रेख्त की कविता में कहें तो;


खाने की टेबल पर जिनके
पकवानों की रेलमपेल
वो पाठ पढ़ाते हैं हमको
“संतोष करो, संतोष करो।”


उनके धंधों की खातिर
हम पेट काटकर टेक्स भरें
और नसीहत सुनते जाएँ
“त्याग करो, त्याग करो।”


मोटी मोटी तोंदों को जो
ठूंस ठूंस कर भरे हुए
हम भूखों को सीख सिखाते
“सपने देखो, धीर धरो।”


बेड़ा गर्क देश का करके
हमको शिक्षा देते हैं
“तेरे बस की बात नहीं,
हम राज करें, तुम राम भजो।”


तब फिर चक्रधर समारोह ही ऐसे हमलों से अछूता क्यों रहेगा? लेकिन यह तो शुरुवात है। अंत तो आम जनता का एकजुट विरोध ही कर सकता है। ऐसे हमलों के खिलाफ क्या आप आवाज उठाएंगे?

संजय पराते

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