Menu
blogid : 12043 postid : 1111158

मोदी-चाय के साथ ‘दाल पर चर्चा’

सत्यानाशी
सत्यानाशी
  • 23 Posts
  • 5 Comments

80-85 रूपये किलो की अरहर 205-210 रूपये चल रही है. दूसरे दालों की कीमतें भी पिछले साल की अक्टूबर की तुलना में दो-ढाई गुना ज्यादा ही है. इसलिए सवाल ‘इस दाल को छोड़ो, उस दाल को खाओ’ का नहीं है. सवाल विशुद्ध व्यावहारिक है : किसी भोजनालय को अपना मुनाफा बनाए रखने के लिए पानी में कितना दाल मिलाना होगा? इसका उत्तर भी आसान है : पहले की तुलना में आधे से ज्यादा नहीं. लेकिन फिर इस दाल में दाल को खोजना पड़ेगा. लेकिन किसी गृहस्थी में इतनी फुरसत कहां? सो, घर की थाली  से तो दाल ही गायब है. दाल-रोटी या दाल-भात अब सब्जी-रोटी या सब्जी-भात में बदल गया है. यदि दाल है, तो किसी ‘फीस्ट’ की तरह हफ्ते में एक बार. दाल अब ‘शाही पकवान’ है गरीबों की थाली के लिए.

प्रधानमंत्री मोदी का अर्थशास्त्र भले ही बढ़ती जीडीपी को महंगाई से जोड़ता हो, लेकिन आम आदमी का अर्थशास्त्र तो महंगाई को दाल की पतली होती धार से ही जोड़ता है. इस अर्थशास्त्र का आम आदमी के बजट से संबंध समझना है, तो एनडीटीवी के रवीश कुमार का ‘दाल-दाल दिल्ली-दिल्ली’ देखिये. यह आम आदमी दसियों किलोमीटर दूर से चलकर मिठाई पुल पर आ रहा है — सड़ी दाल खरीदने के लिए. महंगाई की मार ने इस दाल को भी उसकी थाली से बाहर कर दिया है. यह आम आदमी अपने नुक्कड़ भोजनालय पर दो किलो दाल सौ लोगों को खिला रहा है भात का माड़ मिलाकर. इससे लोगों का पेट तो भर जाता है, लेकिन शरीर को पोषण-आहार नहीं मिलता. महंगाई के कारण लोगों में बढ़ता कुपोषण और अच्छे खाद्यान्न तक उसकी पहुंच से दूरी ‘मोदी के विकास मॉडल’ की धज्जियां उड़ा रहा है. विकास के इसी मॉडल को तब कांग्रेस ने अपनाया था, जिसे मोदी आज अपना बता रहे हैं. फिर यह मॉडल कांग्रेस का हो या भाजपा का, यदि आम आदमी अपने पेट की आग को नहीं बुझा पा रहा है, तो यह समझना आसान है कि इस देश की बढ़ती जीडीपी वास्तव में किसका विकास कर रही है?कारपोरेटों के मुनाफों के लिए अर्थव्यवस्था को ढाला जायेगा, तो दाल का महंगा होना तो तय है.  इसी बात को समझने-समझाने के लिए मध्यप्रदेश में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘दाल पर चर्चा’ का आयोजन किया था. चुनावों के पहले जनता ‘चाय पर चर्चा’ कर रही थी, चुनावों के बाद ‘दाल पर चर्चा’ हो रही है. पहले का लक्ष्य मोदी को प्रधानमंत्री बनाना था, तो दूसरे का लक्ष्य इस देश की सरकार की पूंजीपतिपरस्त नीतियों को बेनकाब कर एक वैकल्पिक राजनीति को आगे बढाने का है.

इस देश में हर साल 2.2 करोड़ टन दालों की  जरूरत पड़ती है और इसकी पूर्ति के लिए औसतन 35 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है. हमारे देश में दालों का उत्पादन कभी इतना नहीं रहा कि हमारी जरूरतें पूरी हो सकें. कभी उत्पादन ज्यादा हुआ, तो कभी कम. वर्ष 1960-61 में दालों की पैदावार 1.3 करोड़ टन थी, जो 2013-14 में बढ़कर 1.925 करोड़ टन हो गई. वर्ष 2014-15 में 1.738 करोड़ टन दाल का उत्पादन हुआ. आज़ादी के बाद दाल उत्पादन में वृद्धि के बावजूद सच्चाई यही है कि देश में प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता में भयंकर गिरावट आई. 1960-61 में यह उपलब्धता 69 ग्राम प्रतिदिन थी, तो आज मात्र 30-35 ग्राम, जबकि विभिन्न पोषण शोध संस्थाएं आहार के लिए 65-80 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का उपभोग जरूरी बताती है. स्पष्ट है कि प्रति व्यक्ति दाल का उपभोग आधे से भी कम है, जबकि दाल ही इस देश का प्रमुख प्रोटीन-स्रोत है. दालों की उपभोग मात्रा शरीर के स्वास्थ्य को निर्धारित करती है. हमारे देश में आधे से ज्यादा महिलायें और बच्चे कुपोषित एवं रक्ताल्पता के शिकार हैं, तो केवल इसलिए कि प्रोटीन-स्रोत के रूप में पर्याप्त दाल-आहार से वंचित हैं.

हमारे देश के नीति-निर्माताओं ने दालों में उत्पादन में बढ़ोतरी की योजनायें तो बनाई, लेकिन वे केवल ‘कागजी’ इसलिए साबित हुई कि लाभकारी भाव का व्यावहारिक सहारा उसे कभी नहीं मिला. लाभकारी मूल्य तो छोडिये, दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी विगत चार दशकों में उतना नहीं बढ़ा, जितना कि अन्य फसलों का. नतीजा यह रहा कि जहां खेती-किसानी घाटे का सौदा है, वहीँ दालों का उत्पादन महाघाटे का सौदा रहा. इसके बावजूद हमारे देश में दालों का उत्पादन डेढ़ गुना बढ़ा, तो हमारे देश के किसानों के हौसलों को ही सलाम करना चाहिए.

दाल उत्पादन में पिछड़ने का एक कारण तो उस अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में देखा जा सकता है, जो नहीं चाहती कि विकासशील देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्म-निर्भर बनें. दालों का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विकसित देशों के पक्ष में झुका हुआ है और उन्हें डॉलर कमाने का मौका देता है. वर्ष 2014-15 में हमने 169 अरब रूपये के मूल्य के बराबर दालों का आयात किया था, तो इस वर्ष दाल उत्पादन में 20 लाख टन गिरावट के मद्देनज़र, 292 अरब रूपये के दाल आयात की संभावना है. विश्व व्यापार संगठन का विकासशील देशों पर हमेशा एक दबाव बना हुआ है कि वे किसानों को दी जा रही सब्सिडी तथा उनकी सुविधाओं में कटौती करें. उनका रूख न्यूनतम समर्थन मूल्य तक के खिलाफ है. इसीलिए, खाद्यान्नों के लिए सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य कभी इतना नहीं रहा कि वे वार्षिक मुद्रास्फीति तक को निष्प्रभावी कर सके. दालों के मामले में तो यह सच सिर चढ़कर बोलता है. जो सरकार अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से 8000 रूपये क्विंटल की औसत दर पर दालों का आयात कर रही है, वह हमारे किसानों को 4000 रूपये का भाव भी देने को तैयार नहीं है. अब तो मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ही यह हलफनामा दे दिया है कि वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के लिए तैयार नहीं है. उल्लेखनीय है कि किसान आयोग ने फसलों की लागत मूल्य का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में देने की सिफारिश की थी, जिसका चुनाव के पहले भाजपा ने भी समर्थन किया था. छत्तीसगढ़ में तो भाजपा ने बाकायदा 300 रूपये बोनस सहित धान का समर्थन मूल्य 2400 रूपये क्विंटल देने का वादा अपने घोषणा पत्र में किया था.

लेकिन कम उत्पादन के बावजूद देश में दाल की किल्लत और महंगाई कभी ऐसी नहीं रही, जैसी कि आज देखी जा रही है. इसका प्रमुख कारण वायदा व्यापार है, जो कल्पित मुनाफे पर आधारित होता है. कल्पना को वास्तविकता में बदलने के लिए यह जमाखोरी को बढ़ावा देता है और बाज़ार में कृत्रिम संकट पैदा करता है. यह व्यापार अनाज मगरमच्छों के बीच ही होता है. इस व्यापार में माल न एक जगह से उठता है और न दूसरी जगह गिरता है. इस व्यापार से किसानों को कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि उसकी फसल तो औने-पौने दामों में पहले ही अनाज मगरमच्छों के हाथों में पहुंच चुकी होती है और अब वे ही इस ‘सट्टा बाज़ार’ के नियंता होते हैं. आज इस सट्टाबाज़ार में टाटा, महिन्द्रा, रिलायंस जैसी कम्पनियाँ भी अपना खेल खेल रही है.देश का कृषि क्षेत्र और खाद्यान्न बाज़ार इन्हीं कार्पोरेट घरानों के हाथों कैद है.

इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि दाल के भाव चढ़ने तो फरवरी-मार्च में ही शुरू हो गए थे, लेकिन सरकार अक्टूबर में ही हरकत में आई. यह देरी जानबूझकर की गई देरी थी. इन छः-सात महीनों मे बाज़ार आम जनता को जितना निचोड़ सकता था, उसने निचोड़ लिया ; जिनकी तिजोरियां भरनी थी, भर चुकी थी. जनता के लुटने-पिटने के बाद अब छापा मारो या दाल आयात करो, जमाखोरों की सेहत पर कोई फर्क पड़ना न था. 80000 टन दाल बाहर निकल आई, लेकिन कोई जमाखोर, कोई सटोरिया, कोई कालाबाजारिया गिरफ्तार तक नहीं!!

सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार,  देश में 8394 छापों में 82463 टन दाल — प्रति छापा लगभग 10 टन दाल — जब्त की गई. इसमें से पांच भाजपा शासित राज्य — महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश — में ही 70246 टन दाल जब्त की गई. यह देश में कुल जब्त दाल का 85% से अधिक है. ये सब राज्य भाजपा के ‘सुराज मॉडल’ है, जो सटोरियों के स्वर्ग बने हुए हैं. लेकिन सात माह बाद जागी सरकार का दम दो दिन में ही फूल गया और छापेमारी को चुपचाप रोक दिया गया. इसीलिए ‘दाल पर चर्चा’ में आम जनता का सवाल था — “इतनी देरी में छापे क्यों, इतनी जल्दी रोके क्यों?” इस देरी और जल्दी का राज किसी से छुपा नहीं है.

82463 टन दाल बाहर निकल आई, लेकिन बाज़ार में दाल की कीमतों पर कोई फर्क नहीं पड़ा, तो 5000 टन दाल के आयात से ही क्या फर्क पड़ना था !! पूरा मामला तो फिक्सिंग का था. सरकार ने दाल बेचने के लिए आउटलेट्स खोले 140 रूपये किलो के भाव से, तो फिर बाजार में दाल 200 रूपये किलो से नीचे क्योंकर उतरे? अब सरकार छापा मारे या आयात करे, जनता सरकारी आउटलेट्स से खरीदे या खुले बाज़ार से — अरहर दाल के भाव तो अब 80-85 रूपये किलो तो पहुंचने से रहे ! आम जनता की दाल में पानी की मात्रा जो बढ़ी, वह भी कम होने से रही. हां, सटोरियों और अनाज मगरमच्छों की तिजोरियां जरूर भरती रहेगी पहले की तरह — जनता चाहे 140 रूपये में खरीदे या 200 रूपये किलो के भाव से खरीदे. सरकार भी इन्हीं सटोरियों के साथ खड़ी हैं, 80 रूपये की दाल 140 रूपये में खरीदने का हांका जो लगा रही है !!

आईये मित्रों, ‘दाल पर चर्चा’ के साथ ‘मोदी-चाय’ की कुछ चुस्कियां ही लें — यदि पहले की तरह वह मुफ्त में कहीं बांटी जा रही हो तो. ‘मुफ्त’ चाय पिलाकर दाल का भाव बढ़ने की राजनीति को अब आम जनता को समझने की जरूरत है.
sanjay.parate66@gmail.com

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply