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एक संकुचनकरी बजट : गांव-गरीब जपना, कॉर्पोरेट सेवा करना

सत्यानाशी
सत्यानाशी
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केन्द्रीय बजट 2017-18 पर नोटबंदी के दुष्परिणामों की छाया स्पष्ट है. पिछले वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण में वर्ष 2016-17 में आर्थिक विकास दर 7.75% रहने का अनुमान लगाया था. बजट कहता है कि इस विकास दर को हम प्राप्त नहीं कर पाए और वित्तीय वर्ष 2016-17 के अंतिम आंकड़े 6% पर आकर टिक जायेंगे. लेकिन जो सरकार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि दर को ही अपनी सफलता की कसौटी मानती है, उसे यदि इसी कसौटी पर कसा जाएं, तो यह एक संकुचनकारी बजट है, क्योंकि पिछले वर्ष का संशोधित बजट आकार कुल जीडीपी का 13.4% था, तो इस बार का बजट घटकर 12.7% के स्तर पर आ गया है. और यदि रेलवे को आबंटित 1.13 लाख करोड़ रुपयों को घटा दिया जाए, (याद रहे कि रेल बजट को इस बार से केन्द्रीय बजट में ही समाहित कर दिया गया है) तो परिमाण में इस वर्ष का बजट पिछले वर्ष के बजट आकार के लगभग बराबर ही रह जाएगा.

अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री अरूण जेटली ने ‘गांव-गरीब’ का जो जाप किया है, आंकड़ों का विश्लेषण करने से ही एक बार में ढह जाता है. दरअसल, आंकड़े अपने-आप में कुछ नहीं कहते. आंकड़ों का विश्लेषण ही सच्चाई को दबाने या उजागर करने का काम करता है. और सच्चाई यही है कि दावा तो गांव-गरीबों को देने का है, यह बजट सेवा तो कार्पोरेट घरानों की ही करता है. गरीबों की झोली में इस बार उतना भी नहीं पड़ा, जितना उसे पिछली बार दिया गया था. यदि 5% मुद्रास्फीति को ही गणना में लिया जाएं, तो इस बार वास्तविक बजट आबंटन उतना भी नहीं बैठेगा, जितना वर्ष 2014-15 में उस समय किया गया था, जब यह सरकार सत्ता में आई थी. एक नज़र केवल कुछ मदों पर :

मदवर्ष 2014-15(करोड़ रूपये)वर्ष 2017-18 (करोड़ रूपये में)2014-15 के आधार पर

वास्तविक आबंटन (करोड़ रूपये)

एकीकृत बाल विकास योजना181951525413178
मध्यान्ह भोजन13215100008638
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन244192713123437
राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्य1063595008206

तो इस बजट में बच्चों-महिलाओं-बूढ़ों, छात्र-नौजवानों और बेसहारा लोगों के लिए क्या है? इस देश में 8 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं और इनमें से लाखों बच्चे कुपोषणजन्य बीमारियों से मर रहे हैं, लेकिन 2014-15 की तुलना में वास्तविक बजट आबंटन कम हो गया है. स्पष्ट है कि कुपोषित बच्चों और मांओं की तादाद और बढ़ेगी –- और निश्चित ही, बाल मृत्यु दर भी. आने वाले वर्षों में देश की ‘तकदीर’ गढ़ने का काम इन कुपोषित, कमजोर कंधों पर होगा, लेकिन आज इनकी तकदीर ‘लिखने’ का काम तो कार्पोरेटों को सौंपा जा रहा है! आंगनबाड़ी केन्द्रों को महिला शक्ति केन्द्रों में बदलने का प्रस्ताव यही है कि 14 लाख आंगनबाड़ी केन्द्रों की बच्चों के खेलने-खाने-सीखने की छोटी-सी जगह को भी वेदांता के प्रस्ताव के अनुसार कार्पोरेटों को सौंप दिया जाएं. यदि इन आंगनबड़ियों के पास औसतन 5 डेसीमल जमीन भी हो, तो 70000 एकड़ जमीन कार्पोरेटों के हवाले की जा रही है. नगद-नारायण में यह जमीन 5 लाख रूपये प्रति एकड़ के हिसाब से 3500 करोड़ रुपयों की हैं. इससे पहले से ही दास-वेतन पर गुजारा करने वाली कार्यकर्ताओं-सहायिकाओं पर काम का बोझ और बढेगा, सो अलग.

गर्भवती माताओं के शिशु-पोषण के लिए 6000 रूपये की नगद सहायता का एक नज़र में आकर्षक लगने वाला प्रस्ताव एक ही झटके में ‘जुमला’ साबित हो जाता है, क्योंकि 2700 करोड़ रुपयों के बजट आबंटन से अधिकतम केवल 45 लाख महिलाओं को ही मदद मिल सकती हैं, जबकि हमारे देश में हर वर्ष 2.6 करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं. भारतीय परिस्थितियों में, जहां समाज पुरूष-प्रभुता का शिकार हैं, यह नगद सहायता भी महिलाओं के हाथों तक कितना पहुंचेगी और हाथों में पहुंचने के बाद भी, गर्भस्थ-शिशु का कितना पोषण करेगी, इसका अंदाजा भी हम आसानी से लगा सकते हैं. वैसे भी एक कार्यकारी आदेश के साथ सरकार ने गर्भवती माताओं के दूसरे शिशु को इस योजना से अलग कर दिया है.

लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में हमारे देश की महिलाएं कैसी बदतरीन दमन का शिकार हो रही हैं, निर्भया कांड केवल उसकी एक मिसाल थी. इस कांड के बाद जो जनांदोलन खड़ा हुआ, उसने इस सरकार को मजबूर किया कि एक ‘निर्भया फंड’ बनाए तथा महिलाओं की सुरक्षा और उनके कानूनी कानूनी अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक उपाय करें. पिछले वर्ष इस फंड में 585 करोड़ रूपये  आबंटित किये गए थे, जबकि इस बार मात्र 400 करोड़ रूपये. इसी प्रकार, लैंगिक बजट के तहत रखा गया आबंटन कुल बजट आबंटन के केवल 5.3% के ही बराबर है. इससे ही पता चलता है कि महिलाओं के मुद्दों के प्रति यह सरकार कितनी ‘संवेदनशील’ हैं!!

यही हाल बूढ़ों और बेसहारा लोगों का है, जिनके लिए सामाजिक सहायता की छतरी को ‘सिकोड़ा’ गया है और 2014-15 के वास्तविक बजट आबंटन में 34.64% की कटौती की गई है. इससे बूढ़ों, विकलांगों और बेसहारों की तकलीफों में और ज्यादा बढ़ोतरी ही होगी.

आंगनबाड़ी की तरह ही 10.3 करोड़ स्कूली बच्चे भी इस ‘कार्पोरेटपरस्त’ बजट का शिकार होने से नहीं बच पाए, जिनके मुंह से निवाला छीनने में इस सरकार ने कोई कोताही नहीं बरती है. वास्तव में मध्यान्ह भोजन योजना के लिए आबंटन हर साल घटता गया है और 2014-15 के आधार पर वास्तविक आबंटन में तो 4.3% की कटौती की हकीकत ही सामने है. मध्यान्ह भोजन के बनाने और परोसने को लेकर जो ‘जातिवाद’ सामने आ रहा है, उससे निपटने के मामले में यह बजट ‘मौन’ ही है. इस योजना में लगभग 26 लाख मजदूर पूरे देश में काम कर रहे हैं, जिनमें से 95% दलित, विधवा और सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर तबके की महिलाएं हैं. ये महिलाएं रोज 4-6 घंटे काम करती हैं, लेकिन सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी से भी वंचित हैं. ‘समान काम, समान वेतन’ के सिद्धांत के आधार पर अदालतों के आदेश का भी पालन करने से सरकारें इंकार कर रही हैं और एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार से उन्हें वंचित कर रही हैं.

शिक्षा क्षेत्र में आबंटन की भी यही कहानी है. सर्व शिक्षा अभियान में पिछले वर्ष के 28330 करोड़ रूपये के मुकाबले इस वर्ष 29556 करोड़ रूपये आबंटित किये गये हैं. मुद्रास्फीति को गणना में लेने के बाद यह वास्तविक बजट आबंटन में 1% की कटौती को ही दिखाती है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी भारी कटौती है. इसी सरकार ने वर्ष 2015-16 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को 9315 करोड़ रूपये आबंटित किये थे, जो वर्ष 2016-17 में घटकर 4286 करोड़ रूपये रह गया यह और इस बजट में और घट गया है. स्पष्ट है कि मोदी सरकार समूची शिक्षा को निजी क्षेत्र और विदेशी पूंजी के हवाले करने के रास्ते पर और आगे बढ़ गई है.

बजट-पूर्व संध्या पर इस सरकार ने नोटबंदी का जो ‘तमाशा’ किया, उसका एक दुष्परिणाम तो यही निकला कि लगभग सभी क्षेत्रों में गरीबों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है तथा वापस गांवों की ओर पलायन करना पड़ा है. ऐसे लोगों की संख्या अनुमानतः एक करोड़ से ज्यादा है. इससे पहले से संकटग्रस्त ग्रामीण अर्थव्यवस्था और संकट में फंस गई है. कृषि की बर्बादी के चलते इन मजदूरों के पास मनरेगा ही एकमात्र सहारा है और इनके लिए 40000 करोड़ रुपयों के अतिरिक्त आबंटन की जरूरत थी. लेकिन मनरेगा का बजट लगभग उतना ही है, जितना पिछले साल खर्च किया गया था. वर्ष 2016-17 में 47400 करोड़ रूपये खर्च करके 220 करोड़ मानव-दिवस सृजित करने का अनुमान है, जबकि इस वर्ष का बजट आबंटन मात्र 48000 करोड़ रूपये ही है, जिससे अधिकतम 200 करोड़ मानव-दिवस ही सृजित हो पाएंगे. बजट आबंटन और रोजगार सृजन के आंकड़ों से स्पष्ट है कि ग्रामीण मजदूरों को औसतन 107 रूपये प्रतिदिन की दर से ही मजदूरी दी जा रही है, जो न्यूनतम मजदूरी से भी बहुत नीचे है और वास्तव में तो बंधुआ-मजदूरी दर ही है. स्पष्ट है कि यह बजट आबंटन मोदी सरकार की मनरेगा के प्रति ‘हिकारत’ को ही दर्शाता है, जिसकी राजनीतिक मजबूरी है कि वह ग्रामीण गरीबों को रोजगार देने वाली विश्व की इस अनोखी योजना को बंद करने की स्थिति में नहीं है. लेकिन इस योजना को पंगु करने पर वह आमादा तो है ही. मनरेगा की उपेक्षा के कारण ग्रामीण बेरोजगारी में और भारी बढ़ोतरी होने जा रही है.

दो करोड़ लोगों को हर साल रोजगार देने का भाजपा का चुनावी वादा भी ‘जुमला’ ही साबित हुआ है. पिछले वर्ष केवल 1.35 लाख लोगों को रोजगार मिला, जबकि 1.35 करोड़ लोगों ने रोजगार-बाज़ार में कदम रखा. नोटबंदी ने लोगों के हाथों से रोजगार छीनने का ही काम किया है और यह रोजगार-क्षय अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में प्रभावी रहा.सातवें वेतन आयोग द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन पर आधारित रोजगार को सुनिश्चित करने के बजाये सरकार का पूरा जोर असंगठित क्षेत्र में ऐसे कुशल बेरोजगारों की फ़ौज को तैयार करना है, जो उद्योगपतियों की जरूरतों को उनके मनमाफिक पूरा कर सके. प्रधानमंत्री यही करने जा रहा है. इससे मजदूरों में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और मजदूरी में भारी गिरावट आएगी. दरअसल, जीडीपी आधारित विकास की अवधारणा ने ‘रोजगाररहित’ अर्थव्यवस्था के विकास को ही बढ़ावा दिया है. इस सरकार ने स्पष्ट रूप से घोषणा भी कर दी है कि नौजवानों को रोजगार देने की जिम्मेदारी उसकी नहीं है.

विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का नुस्खा एक वैश्वीकृत बाज़ार के विकास में  सब्सिडी को सबसे बड़ा रोड़ा मानता है. मोदी सरकार इस नुस्खे की सबसे बड़ी पैरोकार बनकर सामने आई है, जिसके लिए ‘सब्सिडी’ देश के विनाश का प्रतीक है, तो ‘कर-प्रोत्साहन’ विकास के लिए जरूरी. फंड-बैंक का यही अर्थशास्त्र मोदी का गुरुमंत्र है, जो चाहता है कि नंगों-भूखों को भी बाज़ार में खड़ा करके निचोड़ा जाएं. यह अर्थशास्त्र आम जनता, किसान और गरीबों को दी जाने वाली हर सब्सिडी को पूरी तरह ख़त्म करके उसे बाज़ार में खड़ा करना चाहता है. यही कारण है कि सार्वभौमिक वितरण प्रणाली को ख़त्म करने के बाद अब राशन कार्डों को ‘आधार’ से जोड़ने की कसरत की जा रही है, खाद सहित खेती-किसानी की सभी चीजें महंगी की जा रही है और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की गिरावट के बावजूद इसका फायदा आम जनता तक जाने से रोका गया है. खाद्यान्न, खाद और पेट्रोलियम पर वर्ष 2015-16 में 2.42 लाख करोड़ रुपयों की सब्सिडी दी गई थी, जिसे वर्ष 2016-17 के बजट में 4% घटाकर कुल बजट आबंटन का 9.5% किया गया था और इस वर्ष के बजट में इसे और घटाकर कुल बजट आबंटन के 7.9% तक सीमित कर दिया गया है. इस प्रकार मोदी राज के तीन बजटों में गरीबों के लिए अत्यावश्यक सब्सिडी में 30% से ज्यादा कटौती की गई है. इस सब्सिडी में कटौती का अर्थ है – खेती-किसनी की लगत का बढ़ना और खाद्यान्न का और ज्यादा महंगा होना.

लेकिन खेती-किसानी की लागत बढ़ने से कृषि का संकट और गहरा होगा, जिसके नतीजे में मोदी राज में किसान आत्महत्याएं पहले से डेढ़ गुना बढ़ चुकी है. लेकिन कृषि-निर्भर 80 करोड़ जनसंख्या के लिए, जिनमें से तीन-चौथाई

पहले ही भुखमरी के शिकार हैं,उनके लिए बजट में मात्र 58000 करोड़ रूपये ही हैं. यह कुल बजट आबंटन का 2.7% तथा जीडीपी का मात्र 0.4% है. किसानों की मोदी सरकार के प्रति वफ़ादारी ‘बस इतनी-सी’ है. हां, उनके लिए सरकारी बैंकों से 10 लाख करोड़ रुपयों के भारी-भरकम क़र्ज़ की व्यवस्था जरूर की गई है, जिसे हमेशा की तरह कृषि व्यापार करने वाली कंपनियां डकार जायेंगी. अगले पांच वर्षों में किसानों की आय दुगुनी करने की घोषणा पिछले बजट में की गी थी, लेकिन नोटबंदी के दुष्प्रभावों के कारण इस वर्ष किसानों की आय आधी रह गई और कृषि विकास दर 4.1% प्राप्त करने क लक्ष्य धरा रह गया. इस बार के बजट में फिर किसानों की आय दुगुनी करने की घोषणा की गई है. श्रीमान मोदी, साधारण गणित कहता है कि अब सरकार को किसानों की आय अगले चार वर्षों में चौगुनी करनी होगी. लेकिन जिन नीतियों को लागू कर रहे हो, उससे यह संभव नहीं!! हां, वर्त्तमान में खेती में लगी 56% आबादी को वर्ष 2022 तक 31% तक लाने का लक्ष्य जरूर पूरा होगा. इसके लिए बजट में ‘ठेका खेती’ का प्रावधान किया गया है, जिसका मतलब ही है – खेती से किसानों को भगाओ, कारपोरेटो को लाओ. वैसे भी मोदी ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार लागत मूल्य का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य के रूप में किसानों को देने से इंकार कर दिया है और किसानी घाटे का सौदा हो गई है. वैसे भी वनोपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में इस वर्ष सरकार ने 57% तक की कटौती कर दी है और आदिवासियों की आजीविका के एक बड़े स्रोत को ही नष्ट करने की कोशिश की है. न रहेंगे किसान. न रहेंगे आदिवासी – तो जल, जंगल, जमीन, खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को कार्पोरेटों के हाथों सौंपना आसान होगा.

इस बजट में आदिवासी उपयोजना के तहत कुल बजट का केवल 2.44% तथा दलित उपयोजना के तहत केवल 1.48% ही आबंटित किया गया है, जबकि हमारे देश में इन दोनों समुदायों की कुल जनसंख्या लगभग एक-चौथाई है. ये समुदाय हमारे देश के सबसे ज्यादा शोषित, उत्पीड़ित व दमित समुदाय है और बड़े पैमाने पर भूमिहीनता और विस्थापन के शिकार है. लेकिन अनुभव बताता है कि इस अत्यल्प बजट को भी उनकी भलाई के लिए खर्च नहीं किया जाएगा. इस सरकार द्वारा आदिवासियों के लिए वनबंधु कल्याण योजना लागू की गई है, जिसके लिए वर्ष 2015-16 में 200 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया था, लेकिन खर्च किये गए 25 करोड़ रूपये से कम ही. दलित-आदिवसियों के प्रति मोदी सरकार का यह रूख उस संघी दर्शन के अनुरूप ही है, जिसके ‘हिन्दू राष्ट्र’ में इन समुदायों की स्थिति केवल सेवा करने वाले दासों की होती है.

बजट में इस ‘जाहिर’ सच्चाई को स्वीकार करने के बावजूद कि बड़े पैमाने पर कर-चोरी की जा रही है, धन-कुबेरों और कार्पोरेट कंपनियों से सख्ती से कर वसूलकर करधर बढ़ाने की जरूरत थी. लेकिन ‘कर-प्रोत्साहन’ के जरिये विकास को लालायित इस सरकार से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती. इस बार फिर उसने इन धनकुबेरों को प्रत्यक्ष कर में 6.59 लाख करों रुपयों की छूट दी है. पिछले 15 सालों में ‘विकास के नाम पर’ इन मगरमच्छों की तिजोरियों में 60 लाख करोड़ रूपये डाले गए हैं, लेकिन देश के 60 करोड़ किसानों पर लदा 60000 करोड़ रुपयों का क़र्ज़ माफ़ करने के लिए वह तैयार नहीं है. याद रखें कि ये वही धनकुबेर हैं, जिन्होंने बैंकों के 11 लाख करोड़ रूपये हड़प लिए हैं और ये वही कालेधनधारक हैं, जिनकी विदेशों में अथाह संपत्ति जमा है और जिनकी सूची विकीलीक्स से लेकर पनामा पेपर्स व स्वीडन के बैंकों ने इस सरकार को सौंपी हैं. ये वही लोग हैं, जो भारतीय अदालतों से बचकर विदेशों में मौज कर रहे हैं. लेकिन इन लोगों को हाथ लगाने की भी हिम्मत इस सरकार में नहीं हैं. उलटे उसने बैंकों की एनपीए सीमा 7.5% से बढ़ाकर 8.5% करने का रास्ता ही अपनाया है.

रेलवे बजट को केन्द्रीय बजट के साथ मिला दिए जाने का नतीजा यह हुआ है कि देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक यातायात व परिवहन व्यवस्था पर चर्चा ही नहीं हुई है. रेलवे के बजट आबंटन में मात्र 10000 करोड़ रुपयों की वृद्धि की गई है और मुद्रास्फीति को गणना में लिया जाएं, तो वास्तविक बजट आबंटन घटा ही है. इससे रेलवे विस्तार,आधुनिकीकरण व सुरक्षा-खामियों को दूर करने की योजनाएं अधर में तो लटकेंगी ही, किराया व माल-भाड़े में वृद्धि करके जनता पर बोझ भी डाला जायेगा. वास्तव में पूरी कसरत रेलवे के निजीकरण की ओर गुपचुप ढंग से बढ़ने की ही है.

यह बजट ‘भारतीय योजना की विदाई’ वाला बजट भी है. योजना आयोग के खात्मे के बाद बने ‘नीति आयोग’ का मुख्य लक्ष्य यही रह गया है कि किस प्रकार सुनियोजित विकास के ताने-बाने को ध्वस्त करने की ‘नीति’ अपनाई जाए. बजट में योजना व्यय और गैर-योजना व्यय को एक साथ मिला देने से अब इस बात क विश्लेषण करना मुश्किल हो जाएगा कि किसी ख़ास योजना के लिए आबंटित बजट क कितना हिस्सा वास्तविक हितधारकों तक पहुंच रहा है और कितना हिस्सा प्रशासकीय व्यय में खर्च हो रहा है. इससे सरकार को बजटीय आबंटन को मनमाने तरीके से खर्च करने के ‘असीमित अधिकार’ मिल गए हैं. जो लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को ही नुकसान पहुंचाएगा.

तो इस बजट में देश के बच्चों-बूढ़ों, छात्र-नौजवान-महिलाओं, किसान-मजदूरों के लिए कुछ नहीं है. जो कुछ हैं, इस देश के धनकुबेरों और कार्पोरेटों के लिए हैं. पिछले बजट का फायदा भी इन्हें ही मिला था. आखिर बजट तो उन्हीं लोगों के लिए होगा, जो इस देश की बुर्जुआ प्रतियों को ‘फंडिंग’ करते हैं. जिनका इस फंडिंग में योगदान नहीं, उन्हें अपने लिए बजट में मांगने का भी कुछ अधिकार नहीं. इसलिए यह पूछना बेमानी है कि पिछले साल के बजट में पैसेंजर ट्रेनों को 80 किमी. की स्पीड से चलाने या 900 से अधिक अतिरिक्त नए कोचों के निर्माण का जो लक्ष्य रखा गया था, उसका क्या हुआ? उच्च शिक्षा के लिए जो एजेंसी बनाई गयी थी, उसने कितना ‘वित्तपोषण’ किया? यह भी मत पूछो कि रोजगार सृजन योजनाओं के लिए जो 1155 करोड़ रूपये आबंटित किये गए थे, उससे रोजगार पैदा क्यों नहीं हुए? केन्द्रीय भंडारण में 97 लाख टन बढ़ोतरी करने और 3 करोड युवाओं को कौशल विकास केन्द्रों के जरिये प्रशिक्षित करने का जो लक्ष्य रखा गया था, उसका क्या हुआ? ये सब तो ‘बजटीय जुमले’ थे इस देश के नागरिकों के लिए. बहरहाल, ‘देशभक्त’ नागरिक ये सब सवाल नहीं पूछा करते. ….और फिर भी यदि ये सब पूछने की हिमाकत करोगे बच्चू, तो तुम्हें ‘राष्ट्रविरोधी’ बनाकर पाकिस्तान भेजने के लिए संघी गिरोह तैयार है.

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